शनिवार, 17 अप्रैल 2010


खाप पंचायतों का कहर
जब भी गाँव, जाति, गोत्र, परिवार की 'इज़्ज़त' के नाम पर होने वाली हत्याओं की बात होती है तो जाति पंचायत या खाप पंचायत का ज़िक्र बार-बार होता है.
शादी के मामले में यदि खाप पंचायत को कोई आपत्ति हो तो वे युवक और युवती को अलग करने, शादी को रद्द करने, किसी परिवार का समाजाकि बहिष्कार करने या गाँव से निकाल देने और कुछ मामलों में तो युवक या युवती की हत्या तक का फ़ैसला करती है.
लेकिन क्या है ये खाप पंचायत और देहात के समाज में इसका दबदबा क्यों कायम है? हमने इस विषय पर और जानकारी पाने के लिए बात की डॉक्टर प्रेम चौधरी से, जिन्होंने इस पूरे विषय पर गहन शोध किया है. प्रस्तुत हैं उनके साथ बातचीत के कुछ अंश:
खाप पंचायतों का 'सम्मान' के नाम पर फ़ैसला लेने का सिलसिला कितना पुराना है?
ऐसा चलन उत्तर भारत में ज़्यादा नज़र आता है. लेकिन ये कोई नई बात नहीं है. ये ख़ासे बहुत पुराने समय से चलता आया है....जैसे जैसे गाँव बसते गए वैसे-वैसे ऐसी रिवायतें बनतीं गई हैं. ये पारंपरिक पंचायतें हैं. ये मानना पड़ेगा कि हाल-फ़िलहाल में इज़्ज़त के लिए हत्या के मामले बहुत बढ़ गए है.ये खाप पंचायतें हैं क्या? क्या इन्हें कोई आधिकारिक या प्रशासनिक स्वीकृति हासिल है?
रिवायती पंचायतें कई तरह की होती हैं. खाप पंचायतें भी पारंपरिक पंचायते है जो आजकल काफ़ी उग्र नज़र आ रही हैं. लेकिन इन्हें कोई आधिकारिक मान्यता प्राप्त नहीं है.
खाप पंचायतों में प्रभावशाली लोगों या गोत्र का दबदबा रहता है. साथ ही औरतें इसमें शामिल नहीं होती हैं, न उनका प्रतिनिधि होता है. ये केवल पुरुषों की पंचायत होती है और वहीं फ़ैसले लेते हैं. इसी तरह दलित या तो मौजूद ही नहीं होते और यदि होते भी हैं तो वे स्वतंत्र तौर पर अपनी बात किस हद तक रख सकते हैं, हम जानते हैं. युवा वर्ग को भी खाप पंचायत की बैठकों में बोलने का हक नहीं होता...एक गोत्र या फिर बिरादरी के सभी गोत्र मिलकर खाप पंचायत बनाते हैं. ये फिर पाँच गाँवों की हो सकती है या 20-25 गाँवों की भी हो सकती है. मेहम बहुत बड़ी खाप पंचायत और ऐसी और भी पंचायतें हैं.जो गोत्र जिस इलाक़े में ज़्यादा प्रभावशाली होता है, उसी का उस खाप पंचायत में ज़्यादा दबदबा होता है. कम जनसंख्या वाले गोत्र भी पंचायत में शामिल होते हैं लेकिन प्रभावशाली गोत्र की ही खाप पंचायत में चलती है. सभी गाँव निवासियों को बैठक में बुलाया जाता है, चाहे वे आएँ या न आएँ...और जो भी फ़ैसला लिया जाता है उसे सर्वसम्मति से लिया गया फ़ैसला बताया जाता है और ये सभी पर बाध्य होता है.
सबसे पहली खाप पंचायतें जाटों की थीं. विशेष तौर पर पंजाब-हरियाणा के देहाती इलाक़ों में जाटों के पास भूमि है, प्रशासन और राजनीति में इनका ख़ासा प्रभाव है, जनसंख्या भी काफ़ी ज़्यादा है... इन राज्यों में ये प्रभावशाली जाति है और इसीलिए इनका दबदबा भी है.
हाल-फ़िलहाल में खाप पंचायतों का प्रभाव और महत्व घटा है, क्योंकि ये तो पारंपरिक पंचायते हैं और संविधान के मुताबिक अब तो निर्वाचित पंचायतें आ गई हैं. खाप पंचायत का नेतृत्व गाँव के बुज़ुर्गों और प्रभावशाली लोगों के पास होता है.
खाप पंचायतों के लिए गए फ़ैसलों को कहाँ तक सर्वसम्मति से लिए गए फ़ैसले कहा जाए?
लोकतंत्र के बाद जब सभी लोग समान हैं. इस हालात में यदि लड़का लड़की ख़ुद अपने फ़ैसले लें तो उन्हें क़ानून तौर पर अधिकार तो है लेकिन रिवायती तौर पर नहीं है.
खाप पंचायतों में प्रभावशाली लोगों या गोत्र का दबदबा रहता है. साथ ही औरतें इसमें शामिल नहीं होती हैं, न उनका प्रतिनिधि होता है. ये केवल पुरुषों की पंचायत होती है और वहीं फ़ैसले लेते हैं.
इसी तरह दलित या तो मौजूद ही नहीं होते और यदि होते भी हैं तो वे स्वतंत्र तौर पर अपनी बात किस हद तक रख सकते हैं, वह हम सभी जानते हैं. युवा वर्ग को भी खाप पंचायत की बैठकों में बोलने का हक नहीं होता. उन्हें कहा जाता है कि - 'तुम क्यों बोल रहे हो, तुम्हारा ताऊ, चाचा भी तो मौजूद है.'
क्योंकि ये आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त पंचायतें नहीं हैं बल्कि पारंपरिक पंचायत हैं, इसलिए इसलिए आधुनिक भारत में यदि किसी वर्ग को असुरक्षा की भावना महसूस हो रही है या वह अपने घटते प्रभाव को लेकर चिंतित है तो वह है खाप पंचायत....
इसीलिए खाप पंचायतें संवेदनशील और भावुक मुद्दों को उठाती हैं ताकि उन्हें आम लोगों का समर्थन प्राप्त हो सके और इसमें उन्हें कामयाबी भी मिलती है.
पिछले कुछ वर्षों में इन पंचायतों से संबंधित हिंसा और हत्या के इतने मामले क्यों सामने आ रहे हैं?
स्वतंत्रता के बाद एक राज्य से दूसरे राज्य में और साथ ही एक ही राज्य के भीतर भी बड़ी संख्या में लोगों का आना-जाना बढ़ा है. इससे किसी भी क्षेत्र में जनसंख्या का स्वरूप बदला है.
एक गाँव जहाँ पाँच गोत्र थे, आज वहाँ 15 या 20 गोत्र वाले लोग हैं. छोटे गाँव बड़े गाँव बन गए हैं. पुरानी पद्धति के अनुसार जातियों के बीच या गोत्रों के बीच संबंधों पर जो प्रतिबंध लगाए गए थे, उन्हें निभाना अब मुश्किल हो गया है.यदि पहले पाँच गोत्रों में शादी-ब्याह करने पर प्रतिबंध था तो अब इन गोत्रों की संख्या बढ़कर 20-25 हो गई है. आसपास के गाँवों में भी भाईचारे के तहत शादी नहीं की जाती है.ऐसे हालात में जब लड़कियों की जनसंख्या पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पहले से ही कम है और लड़कों की संख्या ज़्यादा है, तो शादी की संस्था पर ख़ासा दबाव बन गया है.
ये आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त पंचायतें नहीं हैं बल्कि पारंपरिक पंचायत हैं, इसलिए इसलिए आधुनिक भारत में यदि किसी वर्ग को असुरक्षा की भावना महसूस हो रही है या वह अपने घटते प्रभाव को लेकर चिंतित है तो वह है खाप पंचायत...इसीलिए खाप पंचायतें संवेदनशील और भावुक मुद्दों को उठाती हैं ताकि उन्हें आम लोगों का समर्थन प्राप्त हो सके और इसमें उन्हें कामयाबी भी मिलती है
डॉक्टर प्रेम चौधरी
दूसरी ओर अब ज़्यादा बच्चे शिक्षा पा रहे हैं. लड़के-लड़कियों के आपस में मिलने के अवसर भी बढ़ रहे हैं. कहा जा सकता है कि जब आप गाँव की सीमा से निकलते हैं तो आपको ये ख़्याल नहीं होता कि आप से मिलना वाल कौन व्यक्ति किस जाति या गोत्र का है और अनेक बार संबंध बन जाते हैं. ऐसे में पुरानी परंपरा और पद्धति के मुताबिक लड़कियों पर नियंत्रण कायम रखना संभव नहीं. लड़के तो काफ़ी हद तक ख़ुद ही अपने फ़ैसले करते हैं.
पिछले कुछ वर्षों में जो किस्से सामने आए हैं वो केवल भागकर शादी करने के नहीं हैं. उनमें से अनेक मामले तो माता-पिता की रज़ामंदी के साथ शादी के भी है पर पंचायत ने गोत्र के आधार पर इन्हें नामंज़ूर कर दिया. खाप पंचायतों का रवैया तो ये है - 'छोरे तो हाथ से निकल गए, छोरियों को पकड़ कर रखो.' इसीलिए लड़कियाँ को ही परंपराओं, प्रतिष्ठा और सम्मान का बोझ ढोने का ज़रिया बना दिया गया है.
ये बहुत विस्फोटक स्थिति है.इस पूरे प्रकरण में प्रशासन और सरकार लाचार से क्यों नज़र आते हैं?प्रशासन और सरकार में वहीं लोग बैठे हैं जो इसी समाज में पैदा और पले-बढ़े हैं. यदि वे समझते हैं कि उनके सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को औरत को नियंत्रण में रखकर ही आगे बढ़ाया जा सकता है तो वे भी इन पंचायतों का विरोध नहीं करेंगे. देहात में जाऊँ तो मुझे बार-बार सुनने को मिलता है कि ये तो सामाजिक समस्या है, लड़की के बारे में उसका कुन्बा ही बेहतर जानता है. जब तक क़ानून व्यवस्था की समस्या पैदा न हो जाए तब तक ये लोग इन मामलों से दूर रहते हैं.आधुनिकता और विकास के कई पैमाने हो सकते हैं लेकिन देहात में ये प्रगति जो आपको नज़र आ रही है, वो कई मायनों में सतही है. छोरे तो हाथ से निकल गए, छोरियों को पकड़ लो.
क्या समाज में जनतांत्रिकीकरण की प्रक्रिया अब मजबूत होने लगी है ? सालों से खाप पंचायतों के अड़ियल रवैए को देखते हुए लगता था कि इनके खिलाफ मोर्चा खोलना आसान नहीं होगा। बावजूद इसका प्रतिरोध भी होता रहा और युवाओं ने भी हार नहीं मानी तथा जीवनसाथी चुनने के अपने अधिकार का उपयोग किया। संभव है कि करनाल कोर्ट का ताजा फैसला कुछ असर दिखाए जिसमें सात लोगों को सजा मिली है। मनोज-बबली के सगोत्र विवाह से क्रुद्ध खाप पंचायत के निर्देश पर उन्हें मौत के घाट उतारने वाले पाँच को फाँसी की सज़ा, खाप पंचायत के प्रमुख को आजीवन कारावास तथा ड्राइवर को सात साल की सजा मिली है। केस तो अभी चलेगा क्योंकि बचाव पक्ष ऊपरी अदालत की शरण में जाएगा। लेकिन यह पहला मौका है जब हरियाणा में इज्जत के नाम पर होने वाली हत्या को इतनी गंभीरता से लेते हुए ३३ माह की सुनवाई के बाद सख्त फैसला सुनाया गया है। इससे लड़ने वाले तथा आगे अपनी मर्जी से शादी करने वालों को हौसला मिलेगा तथा मध्ययुग का प्रतीक बनी ये जाति पंचायतें भी आसानी से फरमान नहीं सुना पाएँगी।मनोज-बबली हत्याकांड में दोषियों को सजा दिलाने के लिए तमाम बाधाओं-धमकियों के बावजूद मजबूती से खड़ी रही मनोज की माँ चन्दरवती की तारीफ की जानी चाहिए जिन्होंने हार नहीं मानी। अपने गाँव में तथा अपने समुदाय में "अपने कहे जाने वाले" लोगों के खिलाफ खड़े रहना बहुत साहस की माँग करता है। अभी भी उन्होंने ललकारा है कि खाप पंचायत के मुखिया गंगाराम को, जिसने इस मामले में पहल की मगर जिसे फाँसी नहीं उम्रकैद की सजा मिली है, फाँसी की सजा दिलवाने के लिए वे कानूनी लड़ाई जारी रखेंगी। काश बेटियों की माँएँ भी कमर कसें कि यदि इज्जत के नाम पर बेटी को मारा जाए या फिर उसकी मर्जी को परिवार में या जाति पंचायत में कुचला जाए तो वे भी संघर्ष करेंगी। तब तानाशाही प्रवृत्ति के खिलाफ तेजी से माहौल बदलेगा।खाप पंचायतों के अमानवीय रवैए पर राष्ट्रीय महिला आयोग की चुप्पी बहुत खतरनाक है। क्या उसका मौन इस वजह से है कि खाप पंचायतों का रवैया जिस सूबे के कारण सुर्खियों में बना है, वहाँ केंद्र में सत्तासीन कांग्रेस पार्टी की ही सरकार है? इस मौन की पड़ताल आवश्यक है। कुछ समय पहले की बात है जब पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने संविधानप्रदत्त कानूनों को धता बताने वाली इन जाति पंचायतों पर अंकुश लगाने के लिए इन्हें गैरकानूनी गतिविधियाँ निवारण अधिनियम (अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेन्शन एक्ट) के दायरे में लेने की बात की थी। मालूम हो कि उच्च न्यायालय के प्रस्ताव पर हरियाणा सरकार ने यह दलील दी थी कि इन जाति पंचायतों पर ऐसे अधिनियमों का इस्तेमाल होगा तो सामाजिक संतुलन बिगड़ सकता है। वैसे अदालत के आँखें तरेरने के बाद प्रशासन को सख्त होना पड़ा था और पिछले दिनों उसने रोहतक के चन्द राजस्व अधिकारियों को निलंबित किया था जिन्होंने एक ऐसी पंचायत में हिस्सेदारी की थी जिसने सगोत्र विवाह करने वाले पति-पत्नी को एक-दूसरे को भाई-बहन कहने का आदेश दिया था।महज अदालतें ही नहीं यह भी देखने में आया है कि सामाजिक संगठन तथा जनतांत्रिक हकों के पक्षधर लोग अब खुलकर खाप पंचायतों के खिलाफ सामने आने लगे हैं। फरवरी माह के तीसरे सप्ताह में इन विभिन्ना संगठनों ने रोहतक के मेहम में इस मसले पर सम्मेलन का आयोजन किया था जिसमें महिलाओं की अच्छी-खासी भागीदारी थी। सम्मेलन ने खाप पंचायतों की शक्ति को चुनौती देने का आह्वान किया तथा लोगों से अपील की कि वे इन्हें हाशिए पर डाल दें। सरकार से यह आग्रह किया गया वे इन खाप पंचायतों को गैरकानूनी घोषित करवाने के लिए कानून का सहारा लें। लोगों ने मंच से कहा कि गोत्र का मुद्दा बेतुका और निराधार है। सामाजिक संगठनों का संयुक्त मोर्चा यदि निरंतर अपनी उपस्थिति तथा सक्रियता बनाए रहता है तो निश्चित ही यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि फिर इन मध्ययुगीन किस्म के फरमानों पर अमल बीते दिनों की बात बन जाएगी। दरअसल इनकी मनमानी के पीछे यही कारण रहे हैं कि सरकारों तथा प्रशासन ने इनके प्रति ढुलमुल रवैया अपनाया तथा नेताओं ने वोट बैंक खिसकने की आशंका से इनके खिलाफ कदम नहीं उठाया। सोचने का मुद्दा यह है कि खाप पंचायतें ऐसा कर पाने में वे सफल क्यों होती दिखी हैं ? इन ताकतों और विचारों पर प्रश्न खड़ा करने का वातावरण तैयार करने के बजाय स्थानीय लोग इसे मजबूती प्रदान करने में क्यों लगे हैं ? इतना ही नहीं ये पंचायतें अपने फरमानों को लागू करवाने के लिए कानूनी वैधता हासिल करने का भी प्रयास कर रही हैं। पिछले साल पश्चिमी उत्तरप्रदेश में आयोजित एक ऐसी ही महापंचायत में घोषणा की गई थी कि हाईकोर्ट में अपील दायर की जाएगी कि "हिन्दू विवाह अधिनियम १९५६" में संशोधन करके सगोत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया जाए। यह समझना भी उतना ही आवश्यक है कि दूसरों के नागरिक तथा व्यक्तिगत अधिकारों को कुचलने की मानसिकता सिर्फ इन खाप पंचायतों के सदस्यों में ही नहीं है बल्कि यह एक सोच और मानसिकता है जिसके खिलाफ लंबी लड़ाई जरूरी है। जरूरी है कि लोगों, सामाजिक संगठनों आदि के माध्यम से यह भी स्थापित करने का प्रयास किया जाए कि शादी-ब्याह, साथ रहना नहीं रहना आदि संबधित व्यक्ति ही तय करे और वही अपनी गृहस्थी चलाने के लिए जिम्मेदार भी हो। माता-पिता-बुजुर्ग या अन्य पारिवारिक जिम्मेदारियों को वहन करने के लिए जिम्मेदार होते हैं। जरूरी नहीं है कि व्यक्तियों के निजी फैसले भी परिवार लेने लगें।अंत में, मनोज-बबली हत्याकांड में अदालती सक्रियता ने खाप पंचायतों को सुरक्षात्मक पैंतरा अख्तियार करने के लिए मजबूर किया है।

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

term is used for Money borrowed or lent for a day or overnight-
Call Money. bank uses punch line “India’s International Bank”
Bank of Baroda

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

Rate at which RBI purchases or rediscounts bills of exchange ofcommercial banks. What this rate is called?
Bank Rate

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

BUDGET Annual estimate of expenditure&revenue of a country or a subordinate authority corporation.OCTROI Tax imposed on articles comin insIDE A CITY